केला अनुसंधान केन्द्र, गोरौल में वर्मी कम्पोस्ट ट्रेनिंग

वर्मी कम्पोस्ट प्रशिक्षण जैविक खेती के लिए सुनहरा अवसर

कौशल विकास योजना के तहत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा के अंतर्गत केला अनुसंधान केन्द्र, गोरौल में 272 घंटे के वर्मी कम्पोस्ट प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत हो गई है। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम 12 मार्च 2025 से शुरू हुआ, जिसका उद्घाटन डॉ. देवेंद्र सिंह, निदेशक, ईख अनुसंधान संस्थान, पूसा एवं केला अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख डॉ. एस. के. सिंह ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर उन्होंने वर्मी कम्पोस्टिंग की महत्ता और कृषि में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला।

ट्रेनिंग प्रोग्राम की प्रमुख विशेषताएं

यह एक माह की अवधि का कार्यक्रम है, जिसका संचालन वरीय वैज्ञानिक डॉ. शशिकांत ठाकुर के नेतृत्व में किया जा रहा है। इसमें 30 प्रतिभागी भाग ले रहे हैं, जिनमें किसान, कृषि उद्यमी, कृषि विज्ञान के विद्यार्थी और जैविक खेती में रुचि रखने वाले अन्य लोग शामिल हैं। इस कार्यक्रम का उद्देश्य कृषि अपशिष्ट प्रबंधन, जैविक खाद उत्पादन तकनीक और वर्मी कम्पोस्टिंग से संबंधित वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करना है।

प्रशिक्षण को दो भागों में विभाजित किया गया है—

  1. सैद्धांतिक प्रशिक्षण (152 घंटे)

    • वर्मी कम्पोस्टिंग की वैज्ञानिक पद्धतियाँ
    • जैविक खाद निर्माण में उपयोगी सामग्री
    • केंचुओं की उपयोगी प्रजातियाँ
    • पर्यावरणीय कारकों का खाद उत्पादन पर प्रभाव
    • जैविक खाद का विपणन एवं व्यवसायिकरण रणनीतियाँ
  2. प्रायोगिक प्रशिक्षण (120 घंटे)

    • केंचुओं की उपयुक्त नस्लों का चयन
    • जैविक कचरे का प्रबंधन
    • खाद निर्माण की वैज्ञानिक विधियाँ
    • तापमान, नमी एवं वायु संचार का नियंत्रण
    • उच्च गुणवत्ता वाली खाद उत्पादन तकनीक
प्रशिक्षण के उद्देश्य
  • जैविक कृषि को बढ़ावा देना – रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को सीमित कर टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना।
  • आर्थिक सशक्तिकरण – किसानों और युवाओं को वर्मी कम्पोस्टिंग के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाना।
  • पर्यावरण संरक्षण – जैविक कचरे के सही प्रबंधन से मृदा एवं जल प्रदूषण को कम करना।
  • स्वरोजगार के अवसर – प्रतिभागियों को जैविक खाद उत्पादन में उद्यमिता के लिए प्रेरित करना।
भविष्य की संभावनाएं

वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा उर्वरता में गिरावट, पर्यावरणीय असंतुलन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में वर्मी कम्पोस्ट एक प्रभावी और सुरक्षित विकल्प के रूप में उभर रहा है। इस तकनीक से—

  • मृदा की उर्वरता में सुधार होगा।
  • फसलों की गुणवत्ता एवं उत्पादन बढ़ेगा।
  • जल धारण क्षमता में वृद्धि होगी।
  • जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा।

सरकार द्वारा जैविक खेती को प्रोत्साहन देने हेतु विभिन्न योजनाएँ चलाई जा रही हैं, जिनके तहत वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन इकाइयों को वित्तीय सहायता, अनुदान एवं ऋण भी दिया जाता है। यह प्रशिक्षण प्राप्त कर प्रतिभागी इन योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं और अपना स्वयं का व्यवसाय स्थापित कर सकते हैं।

प्रशिक्षण का समापन एवं प्रमाण पत्र वितरण

272 घंटे की इस प्रशिक्षण अवधि के सफल समापन के बाद प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र प्रदान किए जाएंगे, जो उन्हें सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थानों से वित्तीय सहायता प्राप्त करने, रोजगार के अवसर पाने और अपना व्यवसाय शुरू करने में मदद करेगा।

इस प्रशिक्षण के दौरान फील्ड विजिट, प्रायोगिक परियोजनाएँ और केस स्टडीज के माध्यम से प्रतिभागियों को व्यावहारिक अनुभव दिया जाएगा, जिससे वे वास्तविक परिस्थितियों में कार्य करने के लिए तैयार हो सकें।

सारांश

केला अनुसंधान केन्द्र, गोरौल द्वारा आयोजित यह प्रशिक्षण कार्यक्रम कृषि क्षेत्र में नवाचार और सतत विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। यह किसानों, कृषि विद्यार्थियों एवं उद्यमियों को प्राकृतिक संसाधनों के टिकाऊ उपयोग के लिए प्रेरित करेगा और रोजगार के नए अवसर सृजित करेगा।

वर्मी कम्पोस्टिंग केवल एक खाद उत्पादन तकनीक नहीं, बल्कि एक हरित क्रांति का प्रतीक है, जो जैविक खेती, पर्यावरणीय संतुलन और आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देगा।

सौजन्य:
प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह
हेड, केला अनुसंधान केंद्र,गोरौल,हाजीपुर
विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर, 
Email: sksraupusa@gmail.com

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