मखाना: बिहार का सफेद सोना, जो बदल रहा है किसानों की तकदीर!
भारत का बिहार राज्य अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और प्राकृतिक संपदा के लिए जाना जाता है। इसी संपदा में एक अनमोल उपहार है “मखाना,” जिसे ई-लिली के बीज के रूप में भी जाना जाता है। “बिहार का सफेद सोना” भी कहा जाता है।

डॉ.मनोज कुमार, वरिष्ठ वैज्ञानिक ने कृषि टाइम्स को मखाना एक पारंपरिक फसल से अंतरराष्ट्रीय सुपरफूड तक के सफर को विस्तार से बताया
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मखाना की खेती: बिहार की समृद्ध परंपरा
प्राचीन काल से ही मखाना उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की पारंपरिक फसल रही है। यह न केवल हमारी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से जुड़ा रहा, बल्कि शरद पूर्णिमा की कोजागरा पूजा में प्रसाद के रूप में इसका विशेष महत्व रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में यह पारंपरिक फसल एक व्यावसायिक अवसर के रूप में परिवर्तित हो गई है।
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वैश्विक स्वास्थ्य जागरूकता और मखाना की मांग
मखाने में अत्यधिक पोषण और औषधीय गुण होते हैं, जिनके प्रति वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ी है। इस बढ़ती जागरूकता के कारण मखाना आज एक सुपर फूड के रूप में स्थापित हो चुका है। वैश्विक मांग में तीव्र वृद्धि हुई है, जबकि इसकी आपूर्ति अब भी सीमित क्षेत्र में होती है। उत्तर बिहार के आठ से दस जिलों, विशेष रूप से दरभंगा और मधुबनी, को ‘मखाना की वैश्विक राजधानी’ के रूप में पहचाना जाता है। इसके अतिरिक्त, मधेपुरा, सहरसा, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया और सीतामढ़ी जैसे जिलों में भी इसकी खेती की जाती है।
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वैश्विक मांग आधुनिक तकनीक और रिसर्च का उपयोग
बढ़ती मांग के चलते किसानों और उद्यमियों के लिए यह एक सुनहरा अवसर बन गया। वैज्ञानिक अनुसंधान और कृषि नवाचार के माध्यम से मखाने की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के प्रयास किए गए। राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र ने 2013 में ‘स्वर्ण वैदेही’ नामक एक नई प्रजाति विकसित की, जिसकी उत्पादन क्षमता पारंपरिक खेती से लगभग दोगुनी है। पारंपरिक तालाबों की जगह अब खेतों में इसकी खेती की जाने लगी, जिससे उत्पादकता में और वृद्धि हुई। पहले जहाँ 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता था, अब यह औसतन 22-30 क्विंटल तक पहुँच चुका है।
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किसानों का सशक्तिकरण
पिछले पाँच वर्षों में मखाने की खेती का क्षेत्रफल 13,000-15,000 हेक्टेयर से बढ़कर 40,000 हेक्टेयर तक हो गया है। वैश्विक स्तर पर कुल मखाना उत्पादन का 90% भारत में होता है, जिसमें से 85-90% उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र में उत्पादित होता है। पहले इसकी खेती और प्रसंस्करण मुख्य रूप से सहनी समाज तक सीमित था, लेकिन अब इसका विकेंद्रीकरण हो गया है। मखाना उत्पादन का कौशल अब अन्य क्षेत्रों तक भी फैल रहा है।
हाल ही में, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, में किसानों को प्रशिक्षित करने का काम किया गया है वहीं उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों के किसानों को तकनीकी सहायता पहुंचाई जा रही, जिससे इसकी खेती अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ रही है। यह व्यवसाय अब सिर्फ परंपरागत किसानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षित युवा भी इसमें रुचि दिखा रहे हैं। जो लोग सरकारी नौकरियों से अलग कुछ करना चाहते हैं, वे इस व्यवसाय में जुड़ रहे हैं।
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मुनाफे के दृष्टि से
आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हो रहा है। पाँच साल पहले प्रति हेक्टेयर ₹50,000 का शुद्ध लाभ होता था, जो अब बढ़कर ₹5,00,000 तक पहुँच चुका है। यदि कोई किसान एक हेक्टेयर में मखाने की खेती करता है और औसतन 20 क्विंटल उत्पादन प्राप्त करता है, तो मौजूदा बाजार मूल्य (₹35,000 प्रति क्विंटल) के आधार पर उसे ₹7 लाख की आमदनी हो सकती है। इसमें लागत ₹1.5 से ₹2 लाख तक होती है, जिससे शुद्ध मुनाफा ₹4.5-5 लाख तक पहुँच सकता है। यह अन्य पारंपरिक फसलों की तुलना में दस गुना अधिक लाभदायक है।
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मखाने की कैसे करें खेती
मखाना की खेती मुख्य रूप से पानी से भरे तालाबों और स्थिर जल क्षेत्रों में होती है। यह फसल बहुत मेहनत और धैर्य मांगती है। मखाना का पौधा विशेष रूप से जलज परिवेश में पनपता है
दिसंबर में नर्सरी तैयार की जाती है, जैसे एक हेक्टयर के तलाब में खेती करनी है तो उसके बीसवें हिस्से में ट्वेंटिएथ पार्ट (पाँच सौ स्क्वायर मीटर) में नर्सरी तैयार करते हैं। फरवरी या मार्च में जब पौधे बड़े हो जाते हैं, तो उन्हें मुख्य खेत में रोपित किया जाता है। सवा मीटर की दूरी पर लगाया जाता है। जुलाई-अगस्त तक इसकी फसल तैयार हो जाती है, मखाना को पारंपरिक रूप से हाथों से निकाला और सुखाया जाता है। इसके बाद इसे भूनकर और प्रोसेस करके बाजार में लाया जाता है। जिससे किसानों को निरंतर आय का अवसर मिलता है।
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सारांश
बिहार का मखाना अपनी उच्च गुणवत्ता, पौष्टिकता और स्वास्थ्य लाभों के कारण वैश्विक स्तर पर एक पहचान बना चुका है। जीआई टैग, सरकार और निजी क्षेत्र की पहल, और आधुनिक मार्केटिंग रणनीतियों के माध्यम से बिहार का मखाना अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी जगह बनाने में सफल हुआ।
आज, बिहार के किसान मखाना की इस सफलता के माध्यम से अपनी आय बढ़ा रहे हैं और राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। मखाना की इस सफलता की कहानी बिहार की सांस्कृतिक और कृषि संपदा को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
डॉ.मनोज कुमार
(वरिष्ठ वैज्ञानिक)
आईसीएआर-एनआरसी मखाना, दरभंगा