जड़ें बचेंगी तो फसल बढ़ेगी: मटर व दलहनी फसलों में जड़ सड़न से निपटने का वैज्ञानिक रोडमैप

समस्तीपुर/पूसा (बिहार):- मटर सहित अन्य दलहनी फसलें देश की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा, मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने तथा किसानों की आय सुदृढ़ करने में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन हाल के वर्षों में जड़ सड़न एवं पौधों के पीला पड़ने की समस्या तेजी से बढ़ी है, जिससे दलहनी फसलों की पैदावारऔर गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो रही हैं। विशेषज्ञ के अनुसार जलजमाव, ठंडी व नमी वाली मिट्टी, कमजोर मृदा स्वास्थ्य और रोगजनकों की सक्रियता इस समस्या के प्रमुख कारण हैं। यदि समय रहते वैज्ञानिक उपाय न अपनाए जाएं तो पूरी फसल के नष्ट होने का खतरा भी बना रहता है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा के पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी के विभागाध्यक्ष तथा पूर्व सह निदेशक (अनुसंधान) प्रोफेसर (डॉ.) एस.के. सिंह ने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के लिए इस रोग के प्रभावी प्रबंधन पर विस्तृत जानकारी साझा की है।
कैसे पहचानें जड़ सड़न और पीला रोग
डॉ. सिंह के अनुसार रोग की शुरुआती पहचान बेहद जरूरी है। प्रारंभ में पौधों की जड़ें काली या गहरे भूरे रंग की होकर गलने लगती हैं। राइजोबियम जीवाणु द्वारा बनने वाली नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली गांठें सिकुड़ जाती हैं, जिससे पौधे को आवश्यक पोषण नहीं मिल पाता। इसके बाद निचली पत्तियों से पीला पड़ना शुरू होकर पूरा पौधा प्रभावित हो जाता है। बढ़वार रुक जाती है, पौधे कमजोर और छरहरे हो जाते हैं तथा गंभीर स्थिति में पौधे गिरकर सूख जाते हैं।
रोग के पीछे छिपे कारण
विशेषज्ञ का कहना है कि यह रोग एक कारण से नहीं, बल्कि कई कारकों के संयुक्त प्रभाव से फैलता है।
-
कवकीय रोगजनक: मृदा में रहने वाले Fusarium spp., Rhizoctonia solani और Pythium spp. प्रमुख रोगकारक हैं, जो नमी और खराब जल निकासी वाली मिट्टी में तेजी से बढ़ते हैं।
-
जीवाणु संक्रमण: कुछ क्षेत्रों में Ralstonia solanacearum जैसे जीवाणु भी जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं।
-
खराब मृदा स्वास्थ्य: लगातार एक ही फसल उगाना, भारी व सख्त मिट्टी, जैविक पदार्थों की कमी और जलभराव रोग की तीव्रता बढ़ाते हैं।
-
असंतुलित सिंचाई व प्रतिकूल मौसम: अत्यधिक सिंचाई और लंबे समय तक ठंडा-गीला मौसम रोग के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाता है।
एकीकृत पौध संरक्षण से मिलेगा समाधान
डॉ. एस.के. सिंह का कहना है कि जड़ सड़न का स्थायी समाधान केवल एक उपाय से संभव नहीं है। इसके लिए एकीकृत पौध संरक्षण (IPM) अपनाना होगा, जिसमें सांस्कृतिक, जैविक और रासायनिक उपायों का संतुलित उपयोग किया जाए।
फसल चक्रण से टूटेगा रोग का चक्र
लगातार दलहनी फसलें उगाने से मृदा में रोगजनकों की संख्या बढ़ जाती है। इसलिए 2–3 वर्षों का फसल चक्र अपनाना जरूरी है। दलहनी फसलों के बाद गेहूं, मक्का या तेलहन जैसी गैर-दलहनी फसलें बोने से रोगजनकों का जीवन चक्र टूटता है।
मृदा स्वास्थ्य सुधार पर दें विशेष ध्यान
स्वस्थ मिट्टी ही स्वस्थ फसल की नींव है। खेतों में उचित जल निकासी की व्यवस्था, अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद, कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग जरूरी है। मृदा परीक्षण के आधार पर पोषक तत्वों की पूर्ति करनी चाहिए। इसके साथ ही Rhizobium और PSB जैसे जैव उर्वरकों का उपयोग फसल की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
बीज उपचार: सबसे सस्ता और प्रभावी उपाय
बीज उपचार को रोग प्रबंधन का सबसे किफायती तरीका माना गया है। बीज बोने से पहले कार्बेंडाजिम + मैनकोजेब या थायरम 2–3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करना चाहिए। जैविक विकल्प के रूप में Trichoderma harzianum या T. viride 5–10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से अत्यंत प्रभावी पाए गए हैं। उपचार के बाद बीज को छायादार स्थान पर सुखाकर बुवाई करनी चाहिए।
संतुलित सिंचाई और जैविक नियंत्रण
डॉ. सिंह के अनुसार जलभराव से हर हाल में बचना चाहिए। भारी मिट्टी वाले क्षेत्रों में ऊँची क्यारियां बनाकर खेती करना लाभकारी है। साथ ही Trichoderma, Pseudomonas fluorescens और Paecilomyces lilacinus जैसे जैव एजेंट मिट्टी में मिलाने से रोगजनकों पर प्रभावी नियंत्रण पाया जा सकता है। यह तरीका पर्यावरण के अनुकूल और दीर्घकालिक समाधान प्रदान करता है।
रसायनों का प्रयोग सोच-समझकर
जहां रोग अत्यधिक गंभीर हो, वहां अनुशंसित मात्रा में ही फफूंदनाशकों का प्रयोग करें। कार्बेंडाजिम या मेटालेक्सिल जैसे रसायनों का उपयोग जड़ क्षेत्र में किया जा सकता है, लेकिन अंधाधुंध प्रयोग से बचना चाहिए, क्योंकि इससे पर्यावरण और मिट्टी के सूक्ष्म जीवों पर नकारात्मक असर पड़ता है।
निरंतर निगरानी और स्वच्छता जरूरी
फसल की नियमित निगरानी कर प्रारंभिक अवस्था में रोग पहचानना नुकसान को काफी हद तक कम कर सकता है। संक्रमित पौधों को तुरंत उखाड़कर नष्ट करें, खेत में फसल अवशेष न छोड़ें और कृषि यंत्रों को साफ रखें।
किसानों के लिए स्पष्ट संदेश
अंत में डॉ. एस.के. सिंह ने कहा कि मटर और अन्य दलहनी फसलों में जड़ सड़न और पीला रोग गंभीर अवश्य है, लेकिन वैज्ञानिक प्रबंधन अपनाकर इसे पूरी तरह नियंत्रित किया जा सकता है। सही फसल चक्र, बेहतर मृदा स्वास्थ्य, जैविक उपायों और संतुलित रसायनों के साथ उचित सिंचाई व नियमित निगरानी से किसान न केवल उत्पादन बढ़ा सकते हैं, बल्कि फसल की गुणवत्ता और अपनी आय भी सुरक्षित कर सकते हैं।
महत्वपूर्ण सलाह:
किसानों को सलाह दी गई है कि इन उपायों को अपनाने से पहले अपने क्षेत्रीय कृषि वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केंद्र या विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें, ताकि स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप सर्वोत्तम रणनीति अपनाई जा सके।
प्रो. (डॉ.) एस. के. सिंह विभागाध्यक्ष, पादप रोग विज्ञान एवं नेमेटोलॉजी अधिकारी-प्रभारी, केला अनुसंधान केन्द्र, गोरौल डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा संपर्क: sksraupusa@gmail.com
चित्र: प्रतीकात्मक